हिन्दू : जीने का समृद्ध कबाड़‘ ‚हिन्दू‘ शब्द के असीम और निराकार विस्तार के भीतर समाहित; अपने-अपने ढंग से सामाजिक रुढियों में बदलती उखड़ी-पुखड़ी; जमी-बिखरी वैचारिक धुरियों; सामूहिक आदतों; स्वार्थो और परमार्थो की आपस में उलझी पड़ी अनेक बेड़ियों-रस्सियों; सामाजिक-कौतुबिंक रिश्तों की पुख्तगी और भंगुरता; शोषण और पोषण की एक दुसरे पर चढ़ीं अमृत और विष की बेलें; समाज की अश्मिभूत हायरार्की में साँस लेता-दम तोड़ता जन; और इस सबके उबड़-खाबड़ से रह मनाता समय-मरण-लिप्सा और जिवानावेग की अताल्गामी भंवरों में डूबता-उतराता; अपने घावो को चाटकर ठीक करता; बढ़ता काल…
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Studio: Storyside IN
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