शौचालय का होना या न होना भर इस किताब का विषय नहीं है| यह तो केवल एक छोटी सी कड़ी है; शुचिता के तिकोने विचार में| इस त्रिकोण का अगर एक कोना है पानी; तो दूसरा है मिटटी; और तीसरा है हमारा शरीर| जल; थल और मल| पृथ्वी को बचाने की बात तो एकदम नहीं है| मनुष्य की जात को खुद अपने को बचाना है; अपने आप ही से| पुराना किस्सा बताता है की समुद्र मंथन से विष भी निकलता है और अमृत भी| यह धरती पर भी लागू होता है| हमारा मल या तो विष का रूप ले सकता है या अमृत का| इसका परिणाम किसी सरकार या राजनीतिक पार्टी या किसी नगर की नीति-अनीति से तय नहीं होगा| तय होगा तो हमारे समाज के मन की सफाई से| जल; थल और मल के संतुलन से|
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