जहाँ मौत नहीं है; बुढ़ापा नहीं है; जनता के असन्तोष और राज्यसभाई जीवन का सन्तुलन नहीं है वह कविता है नागार्जुन की। ढाई पसली के घुमन्तु जीव; दमे के मरीज; गृहस्थी का भार-फिर भी क्या ताकत है नागार्जुन की कविताओं में! और कवियों में जहाँ छायावादी कल्पनाशीलता प्रबल हुई है; नागार्जुन की छायावादी काव्य-शैली कभी की खत्म हो चुकी है। अन्य कवियों में रहस्यवाद और यथार्थवाद को लेकर द्वन्द्व हुआ है; नागार्जुन का व्यंग्य और पैना हुआ है; क्रान्तिकारी आस्था और दृढ़ हुई है; उनके यथार्थ-चित्रण में अधिक विविधता और प्रौढ़ता आई है।…उनकी कविताएँ लोक-संस्कृति के इतना नजदीक हैं कि उसी का एक विकसित रूप मालूम होती हैं। किन्तु वे लोकगीतों से भिन्न हैं; सबसे पहले अपनी भाषा-खड़ी बोली के कारण; उसके बाद अपनी प्रखर राजनीतिक चेतना के कारण; और अन्त में बोलचाल की भाषा की गति और लय को आधार मानकर नए-नए प्रयोगों के कारण। ऑडियो में इन कविताओं को सुनना नागार्जुन की कक्षा में बैठने जैसा है! ज़रूर सुनें!
Medium: Audio Books
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Studio: Storyside IN
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